भारत में सबसे ज्यादा जमीन किसके पास? सरकार के बाद बड़े जमीन मालिकों की असली तस्वीर

16सितंबर

Posted on सित॰ 16, 2025 by रवि भटनागर

भारत में सबसे ज्यादा जमीन किसके पास? सरकार के बाद बड़े जमीन मालिकों की असली तस्वीर

सरकार के बाद सबसे बड़े जमीन मालिक कौन—जवाब आपकी उम्मीद से अलग

भारत का कुल भू-क्षेत्र करीब 32.88 लाख वर्ग किलोमीटर है। यह तय है कि सबसे बड़ा मालिक केंद्र सरकार है, लेकिन उसके बाद कौन? यही सवाल हर बार बहस छेड़ देता है, क्योंकि आंकड़े बिखरे हैं, परिभाषाएं अलग हैं और कई सर्वे अधूरे। फिर भी मोटे तौर पर तस्वीर साफ करने के लिए भरोसेमंद सरकारी दस्तावेज, संसद में दिए जवाब, और वैधानिक बोर्डों के रिकॉर्ड एक अच्छा आधार देते हैं।

केंद्र सरकार के पास करीब 58.07 लाख एकड़ जमीन मानी जाती है। यह जमीन 51 केंद्रीय मंत्रालयों और 100 से ज्यादा पीएसयू के जरिए इस्तेमाल होती है—सचिवालयों से लेकर बंदरगाहों, हवाईअड्डों, रिसर्च कैंपस, गोदामों और औद्योगिक टाउनशिप तक। रक्षा मंत्रालय अकेले लगभग 17.31 लाख एकड़ भूमि का प्रबंधन करता है—कैंटोनमेंट, प्रशिक्षण मैदान, फील्ड डिपो, फायरिंग रेंज और रणनीतिक प्रतिष्ठान। यह जमीन विकास के लिए खुली नहीं होती, क्योंकि इसका प्राथमिक काम सुरक्षा है।

भारतीय रेल के पास करीब 11.7 लाख एकड़ जमीन है—पटरियां, स्टेशन, यार्ड, वर्कशॉप, कॉलोनियां और लॉजिस्टिक्स हब इसी में आते हैं। रेल भूमि विकास प्राधिकरण (RLDA) ऐसे कई भू-खंडों को लीज़/जॉइंट-डेवलपमेंट से स्टेशनों के पुनर्विकास और गैर-किराया राजस्व बढ़ाने में लगा है। रेल परिसरों के आसपास की खाली या कम उपयोग जमीन अब स्टेशन री-डेवलपमेंट, मल्टी-मोडल हब और ट्रांजिट-ओरिएंटेड डेवलपमेंट के लिए सामने आ रही है।

यहाँ एक अहम बात समझना जरूरी है—राज्यों के पास (खासकर वन विभागों के जरिए) बहुत बड़ी जमीन है, लेकिन उसे हम अलग-अलग राज्य संस्थाओं में बांटकर देखते हैं। एकल “मालिक” के रूप में केंद्र सरकार सबसे ऊपर दिखती है, पर समेकित रूप से राज्यों का वन और राजस्व भूमि-पूल कहीं बड़ा है। इसलिए “सबसे बड़ा एकल मालिक” और “कुल सरकारी भूमि”—ये दो अलग फ्रेम हैं।

धार्मिक और समुदाय आधारित संपत्तियों पर तस्वीर और रोचक हो जाती है। वक्फ बोर्डों के पास देशभर में 8.7 लाख से ज्यादा संपत्तियों का रिकॉर्ड है। इनके क्षेत्रफल को लेकर अलग-अलग सर्वे अलग संख्या देते हैं—कई स्रोत 6 से 9.4 लाख एकड़ के बीच का आंकड़ा बताते हैं। मस्जिदें, कब्रिस्तान, ईदगाह, मदरसे, दुकानों/किराये की संपत्तियाँ—बहुत सी परिसंपत्तियाँ आय अर्जित करती हैं और कई राज्यों में इन पर अतिक्रमण भी बड़ी चुनौती है। सर्वे का काम कई जगह अधूरा है, इसलिए डेटाबेस निरंतर अपडेट हो रहा है।

हिंदू धार्मिक ट्रस्ट बिखरे ढांचे में काम करते हैं—कोई एक केंद्रीय रजिस्टर नहीं। “करीब 20 लाख एकड़” जैसी बात अक्सर कही जाती है, पर इसे किसी एक डेटाबेस से मिलाना आसान नहीं। फिर भी बड़े ट्रस्टों का पैमाना समझिए—तिरुमला तिरुपति देवस्थानम (TTD) की आय और परिसंपत्तियाँ कई छोटे राज्यों के बजट से टक्कर लेती हैं; शिर्डी साईबाबा और पद्मनाभस्वामी जैसे मंदिरों की नगद-स्वर्ण संपदा अलग से सुर्खियाँ बटोरती है। याद रहे, संपत्ति का “मूल्य” और “जमीन का क्षेत्रफल” अलग बातें हैं—दोनों को मिला देना अक्सर भ्रम पैदा करता है।

कैथोलिक चर्च को लेकर इंटरनेट पर फैला एक दावा—कि उसके पास भारत में “कई करोड़ एकड़” जमीन है—तथ्यों से मेल नहीं खाता। यह आंकड़ा आम तौर पर वैश्विक परिसंपत्तियों के साथ मिलाकर पेश किया जाता है। भारत में चर्च की जमीन स्थानीय डायसीज़ और ऑर्डर्स में बंटी है—स्कूल, अस्पताल, चर्च-कॉम्प्लेक्स, होस्टल, मिशनरी परिसरों के रूप में। कई अध्ययनों में चर्च की भारतीय भूमि का अनुमान 2–3 लाख एकड़ के दायरे में बताया गया है, लेकिन कोई केंद्रीकृत आधिकारिक ऑडिट उपलब्ध नहीं।

अन्य पंथ/प्रबंधन निकाय—जैसे एसजीपीसी के प्रबंधन में गुरुद्वारे, बौद्ध मठ, जैन ट्रस्ट, और विभिन्न मठ-महंतों की जमीनें—भी स्थानीय कानूनों के तहत आती हैं। इनके पास कृषि, चैरिटेबल, और धार्मिक उपयोग के भू-खंड हैं। डेटा विखंडित है, इसलिए किसी एक “रैंकिंग” में इन्हें समेटना कठिन है।

कॉरपोरेट और निजी क्षेत्र में बड़े नामों के पास भी उल्लेखनीय जमीन है—मसलन, मुंबई के विक्रोली में गोदरेज के पास हजारों एकड़ मैंग्रोव और फ्रीहोल्ड/लीज़होल्ड मिक्स्ड परिसंपत्तियाँ हैं। डीएलएफ जैसे डेवलपर्स के पास अधिग्रहित/लीज़ की गई करीब 10,000 एकड़ के आसपास जमीन का जिक्र विभिन्न फाइलिंग में आता है। चाय-बागान और एग्रो-कमोडिटी कंपनियों के पास उत्तर-पूर्व और दक्षण के इलाकों में विस्तृत एस्टेट्स हैं। खनन कंपनियों—सरकारी और निजी—के पास अक्सर “लीज़होल्ड” क्षेत्र होता है, जो कानूनी रूप से “मालिकाना” से अलग श्रेणी है।

शिक्षा और हेल्थकेयर भी बड़े जमीन-उपयोगकर्ता हैं। केंद्रीय विश्वविद्यालय, IIT/AIIMS, IISER, कृषि और पशु-चिकित्सा विश्वविद्यालय—इनके कैंपस हजारों एकड़ में फैले हैं। राज्य विश्वविद्यालय, राज्य मेडिकल कॉलेज, और अनुसंधान संस्थान जोड़ दें तो यह और बढ़ जाता है। बेशक, इनका स्वामित्व सीधे-सीधे केंद्र/राज्य के नाम पर दर्ज होता है।

कुल मिलाकर अगर आप एक पंक्ति में पूछें—भारत में सबसे ज्यादा जमीन किसके पास—तो जवाब है: एकल मालिक के रूप में केंद्र सरकार; उसके बाद रक्षा और भारतीय रेल; धार्मिक ट्रस्ट और वक्फ बोर्ड बड़े हैं लेकिन उनके आंकड़े बिखरे और विवादित; राज्य सरकारों के वन और राजस्व भूमि का संयुक्त आकार सबसे विशाल, पर वह “एक इकाई” नहीं माना जाता।

जमीन का इस्तेमाल, अतिक्रमण, और आगे की नीतियाँ

देश की बड़ी सरकारी जमीन का बड़ा हिस्सा “स्ट्रैटेजिक” या “कोर-ऑपरेशन” में बंद है—जैसे फायरिंग रेंज, एयरफोर्स स्टेशन, रेल यार्ड। इनके आसपास सुरक्षा/ऑपरेशनल बफर भी चाहिए होता है। फिर भी रेल, बंदरगाह, दूरसंचार और शहरी विकास में “नॉन-कोर” या “अंडरयूज्ड” पार्सल की पहचान करके मोनेटाइजेशन की कोशिशें तेज हैं। नेशनल मोनेटाइजेशन पाइपलाइन के तहत स्टेशनों, वेयरहाउस, लॉजिस्टिक्स पार्क, और आवासीय कॉलोनियों के री-डेवलपमेंट के जरिए राजस्व और बेहतर उपयोग—दोनों लक्षित हैं।

अतिक्रमण एक सार्वभौमिक समस्या है। रेल परिसरों से लेकर वक्फ संपत्तियों और मंदिर ट्रस्टों की जमीन तक—कई जगह दशकों पुराने गैर-अधिकृत कब्जे मिलते हैं। जब तक रिकॉर्ड, सीमांकन और टाइटल स्पष्ट नहीं होंगे, नियमितीकरण और बेदखली—दोनों राजनीतिक/सामाजिक तनाव पैदा करेंगे। यही वजह है कि डिजिटल इंडिया लैंड रिकॉर्ड्स मॉडर्नाइजेशन प्रोग्राम (DILRMP) और गाँवों की आबादी भूमि के ड्रोन-सर्वे (स्वामित्व योजना) पर जोर बढ़ा है—टेक्स्ट रिकॉर्ड, नक्शे और टाइटल का डिजिटल मेल जरूरी है।

कानून भी तस्वीर बदलते हैं। भूमि अधिग्रहण (RFCTLARR, 2013) में सामाजिक प्रभाव आकलन, सहमति और मुआवजा बढ़ा, तो परियोजनाओं की टाइमलाइन और जटिल हुई। धार्मिक संपत्तियाँ—वक्फ अधिनियम और राज्य के मंदिर/धार्मिक न्यास कानूनों के तहत—विशेष प्रक्रियाओं में आती हैं; बेचान/लीज़ और पुन:विकास के लिए अलग-अलग मंज़ूरियाँ चाहिए होती हैं। ऐसे में एक ही शहर में दो पड़ोसी भू-खंडों का कानूनी ट्रीटमेंट बिल्कुल अलग हो सकता है।

कैंटोनमेंट और रक्षा भूमि पर भी बदलाव दिख रहे हैं—पुरानी बैरकों के पुनर्विकास, डिफेंस के नॉन-कोर पैच की पहचान, और नागरिक सुविधाओं के लिए बेहतर समन्वय पर काम चल रहा है। शहरीकरण के दबाव में “ब्राउनफील्ड” रीडेवलपमेंट आगे बढ़ रहा है, ताकि नई जमीन लेने के बजाय पुरानी जमीन का घनत्व और उपयोगिता बढ़ाई जा सके।

तो फिर आंकड़े क्यों टकराते हैं? वजहें साफ हैं—(1) स्वामित्व बनाम लीजहोल्ड की परिभाषा, (2) सर्वे/री-सर्वे का अधूरा होना, (3) अलग-अलग रजिस्ट्रियों की पारस्परिक असंगति, (4) मूल्यांकन को क्षेत्रफल समझ लेना, और (5) अतिक्रमण/विवादित दावों का लंबा इतिहास। जब तक “एकीकृत भूमि कैडास्टर” नहीं बनता, किसी भी “रैंकिंग” को अनुमान और दायरे की शर्तों के साथ ही पढ़ना होगा।

आगे नजर रखने लायक तीन ट्रेंड साफ हैं—(1) रेल, बंदरगाह और एयरपोर्ट परिसरों का बड़े पैमाने पर पुनर्विकास और कमर्शियल-मिक्स्ड यूज, (2) ड्रोन्स/जीआईएस आधारित सीमांकन से टाइटल विवादों में कमी, और (3) हरित ऊर्जा (सोलर/विंड), लॉजिस्टिक्स और औद्योगिक कॉरिडोर के लिए बड़े भू-खंडों की मांग। यह सब तभी टिकाऊ होगा जब निजी/धार्मिक/सरकारी—सभी श्रेणियों की जमीन के रिकॉर्ड पारदर्शी और समय-समय पर अपडेट हों, और स्थानीय समुदाय की सहमति व पुनर्वास को डिजाइन का हिस्सा बनाया जाए।

तस्वीर साफ है—जमीन सिर्फ संपत्ति नहीं, नीति, स्थानीय आस्था, सुरक्षा और विकास का संगम है। इसलिए “किसके पास कितनी जमीन” पूछने के साथ “उसका उपयोग कैसे हो रहा है” यह सवाल भी उतना ही जरूरी है।

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